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विनोद शाही

विनोद शाही समकालीन हिन्दी आलोचना का मुखर नाम हैं, क्योंकि नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय व तमाम दूसरे बड़े आलोचक अब केवल मंचीय आलोचना तक ही सीमित होकर रह गए हैं।(अब इनके वक्तव्य ही संपादित होकर सामने आ रहे हैं।) इससे इत्तर उनके मुखर होने का दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि वे उन बीज-भूमियों की तलाश में रहे हैं, जहाँ से ‘अपनी ज़मीन की आलोचनात्मक आधारभूमि’ तलाश की जा सके। उनकी लेखनी के केन्द्र में ‘उधार की मनोवृत्ति’ के प्रति एक गहरी खीज़ साफ महसूस की जा सकती है। इसी के बरअक्स जब वे ‘रामकथा : एक पुनर्पाठ’ लिखते हैं, तो अपने मिथकों को नए सृजनात्मक अर्थ देते हैं। ‘आलोचना की ज़मीन’ का लेखन उन्हें ‘मुख्य अर्थों’ के पीछे ‘गौण कर दिए गए अर्थों’ को पुनः खोलने के देरीदायी विमर्श से जोड़ता है। उनका ‘वारीस शाह’ व ‘बुल्ले शाह’ को हिन्दी-दुनिया से रूबरू कराने का प्रयास भी अपनी सांझी विरासत के प्रति एक स्वस्थ नज़रिये का ही प्रमाण माना जा सकता है। हालाँकि यह सूफी परंपरा में जायसी के पीछे गुमराह कर दिए गए इन अदीबों की कुछ चुभती वजहों को भी सामने लाता है। उनकी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक ‘हिन्दी आलोचना की सैद्धान्तिकी’ भी उनके भीतर अपनी वर्तमान आलोचना को लेकर लगातार उठती कशमकश को सामने लाती है। यह वही बेचैनी है, जो उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ लिखते हुए लगातार महसूस की है। उनके यहाँ सवालों की एक लंबी श्रृंखला है, जो इस बात का वाजिब उत्तर नहीं पाती कि आखिर भरतमुनि, भामह, वामन, आनंदवर्द्धन, अभिनवगुप्त, क्षेमेन्द्र, महिमभट्ट, मम्मट और पंडितराज जगन्नाथ के बाद का आलोचना-कर्म मौलिक सिद्धांत तलाशने की बजाय बहस और विवेचन पर ही केन्द्रित होकर क्यों रह गया है? यदि मैलिक आलोचना का कोई आखिरी उछाल दिखाई भी देता है, तो वह शंकराचार्य के द्वैतवाद में ही। हालाँकि बाद के आचार्यों द्वारा उनकी खींची लकीर इस कदर पीटी जाती है कि उनकी दार्शनिक महानता ही भारत के मैलिक चिंतन के विकास का गला घोंटने की वजह बनने लगती है। इसके बाद यदि कोई रास्ता रामचन्द्र शुक्ल के ‘लोकमंगल की साधनावस्था’ में दिखता भी है, तो वह रस-दर्शन की सुदीर्घ परंपरा के मोह में विलीन हो जाता है। खैर उनके बाद का तो तमाम रास्ता लंदन, न्यूयार्क व मास्कों से बरास्ते हवाई पट्टी पर खुलता है, जिसे अपना कहने की कितनी ही डींगे क्यों न भरी जाएँ, कितु वह बाहरी ही बना रहता है। शाही इस सारी विवेचना के बीच इस बात के लिए भूमिका तैयार करते हैं कि क्या हम अंतर्ध्वनि-सिद्धांत या नव-रीतिवाद जैसे सिद्धांतों के सहारे अपनी विरासत से कुछ बीज-तत्त्व नहीं प्राप्त कर सकते?
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